दीवाली विशेष : जुए की संस्कृति, पैसा किस्मत से नहीं मेहनत से आता है



भारतीय रेलवे ने इस साल भी अपने कर्मचारियों को खासा दीवाली बोनस दिया है पर शायद ही कोई कर्मचारी मानेगा कि यह बोनस उस का भाग्य नहीं कर्र्म यानी उन ड्यूटियों का पुरस्कार था जो उस ने मौसमों की परवा न करते हुए सालभर दिनरात एक कर के की थीं. बोनस एक तरह की कमाई ही है जो हर किसी को अलगअलग तरह से मिलती है. बोनस उन लोगों को नहीं मिलता जो कहीं काम न करते हों. हां, काम का स्तर छोटाबड़ा किसी भी वजह से हो सकता है. दो टूक कहा जाए तो भिखारी भी कर्म की खाता है, किस्मत की नहीं यानी यह कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती है कि सोते हुए शेर के मुंह में शिकार खुद नहीं आता, उस के लिए शेर को भी मेहनत यानी शिकार करना पड़ता है.

दीवाली का त्योहार, दरअसल, अर्थप्रधान है और लगभग व्यापारियों का है जो सालभर का हिसाबकिताब लगाते नफानुकसान देखते हैं व मुनाफे की ज्यादा से ज्यादा गुंजाइशों व aतौरतरीकों पर गौर करते हैं. इस सच का दूसरा चिंतनीय व खतरनाक पहलू किस्मत नाम का प्रचलित शब्द है जिसे दीवाली की रात लगभग 50 फीसदी लोग आजमाते हैं. उन का मकसद यह जानना रहता है कि अगले साल पैसों के मामले में उन की स्थिति यानी किस्मत कैसी होगी. इसी आजमाइश में कई लोग आदतन जुआरी भी बन जाते हैं. ये वे लोग हैं जो कर्म से ज्यादा भाग्य में भरोसा करते हैं. इस भाग्य का सार यह है कि जो ऊपर वाले ने लिख दिया है वही भाग्य है. इसे कोई बदल नहीं सकता. इस बाबत ऐसेऐसे तर्क दिए जाते हैं कि अच्छेअच्छे लोग चकरा जाते हैं कि बात तो सही है कि एक झटके में राजा नल जैसा चक्रवर्ती सम्राट जब कंगाल हो सकता है और उस की पूरी कहानी महाभारत में मौजूद है, तो कुछ तो होता ही होगा.

मूर्खता और अंधविश्वास राजा नल जुआ खेलता था लेकिन राजपाट उस ने अपने पराक्रम व युद्ध कौशल से हासिल किया था. भाग्यवादी लोग यह सोचने की जहमत नहीं उठाते कि जुए में सिर्फ कमाया हुआ धन गंवाया जा सकता है, कमाया नहीं जा सकता, क्योंकि यह कोई उद्योग या व्यापार नहीं है. दीवाली पर जुआ खेलना एक ऐसा ही घातक रिवाज है जो हर साल कई घर उजाड़ देता है और अच्छीखासी जिंदगी जी रहे लोगों को कंगाल बना देता है. ये लोगबाद में सालभर कर्ज और उधारी ले कर अभावों की जिंदगी जीते हैं और हर समय अफसोस करते नजर आते हैं कि अगर किस्मत आजमाने या शगुन करने के लिए जुए की फड़ पर नहीं बैठे होते, तो मुंह छिपा कर जीने के ये दिन नहीं देखने पड़ते.

महाभारत के इन राजा नलों पर ज्यादा तरस उस वक्त आता है जब वे फिर किस्मत आजमाने के चक्कर में दीवाली की रात जुए की फड़ पर नजर आते हैं यह सोचते हुए कि शायद इस साल जीत जाएं. इन का वह जीतने वाला साल कभी नहीं आता तो वाकई इन के हौसले की दाद देनी पड़ेगी. यह जुआ, दीवाली का शगुन या फिर कह लें कि दांव लगा ले… वाली मानसिकता आखिर आई कहां से? इस सवाल का जवाब साफ है कि यह लत या ऐब कुछ भी कह लें, धर्म की देन है. इसलिए भी लोग बेखौफ हो कर जुआ खेलते हैं. कहा जाता है कि शंकर ने अपनी पत्नी पार्वती के साथ जुआ खेला था. तभी से दीवाली पर जुआ खेलना एक रिवाज बन गया. ऐसे और भी काल्पनिक उदाहरण पौराणिक ग्रंथों में इफरात से मिलते हैं जिन में सब से प्रचलित महाभारत काल का है कि पांडव अपनी पत्नी तक जुए में हार गए थे और खुद भी राजपाट सहित दांव पर लग गए थे. पर इस कहानी से लोग बजाय सबक लेने के, प्रेरणा लेते हैं. सो, इसे क्या कहा जाए?


पौराणिक काल में ताश के पत्ते ईजाद नहीं हुए थे, इसलिए जुआ पासों से या कौडि़यों से खेला जाता था. जितने भी जुए इन धर्मग्रंथों में वर्णित हैं वे बड़े दिलचस्प हैं कि आप चाहें तो जुए में सबकुछ हार सकते हैं और किस्मत अच्छी हो तो सबकुछ फिर से वापस भी मिल जाता है. धर्मग्रंथ रचने वाले कितने चालाक रहे होंगे, यह इन उदाहरणों से सहज समझा जा सकता है कि पैसा आता तो मेहनत से है, लेकिन जाता (र्दु)भाग्य से है यानी हर साल दीवाली पर फड़ों पर बैठे लोग भाग्य नहीं बल्कि दुर्भाग्य आजमा रहे होते हैं.

सालभर की अपनी मेहनत की कमाई भाग्य के नाम पर ताश के पत्तों के जरिए दूसरों को सौंप देना किस्मत की नहीं, बल्कि बेवकूफी की बात है. यही बेवकूफी करने को धर्मग्रंथों ने लोगों को इस तरह उकसाया व बरगलाया है कि वे आज भी नहीं सुधर रहे. पर सुधरना चाहें तो… लोग सुधर इसलिए नहीं पा रहे क्योंकि वे भाग्यवादी मानसिकता से पिंड खुद ही नहीं छुड़ाना चाहते. कितनी अजीब बात है कि महज भाग्यवादी बने रहने के लिए लोग लुटने तक को तैयार हैं, पर सुधरने को नहीं. कमाई यानी पैसों के प्रति उत्सुकता निहायत ही स्वाभाविक बात है लेकिन क्या ऐसा होता है कि आप कुछ न करें और रातोंरात अंबानी की तरह रईस बन जाएं.

यह बात भी जुए में किस्मत आजमा रहे लोग नहीं समझना चाहते कि धीरूभाई अंबानी एक बुद्धिमान व मेहनती कारोबारी थे. अब उन के बेटे मुकेश और अनिल भी उन के नक्शेकदम पर चल रहे हैं. सदियों से दीवाली पर लोग लक्ष्मीपूजन कर रहे हैं पर हालत उन्हीं की सुधरी है जिन्होंने मेहनत का दामन नहीं छोड़ा. पैतृक संपत्ति मिल जाना या करोड़ों की लौटरी खुल जाना जैसी अपवाद बातों की बकवास भी लोग नहीं समझते कि लौटरी भी एक जुआ ही है जिस में लाखों लोगों का रुपया किसी एक के पास चला जाता है. इसी लालच में लोग जुए की फड़ पर बैठते हैं जो कभी पूरा नहीं होता. पैतृक संपत्ति तो अधिकार है जिसे आप चाहें तो बनाए रखें या फिर एक रात में जुए की फड़ पर उड़ा दें, यह आप की मरजी और समझ की बात है. उड़ा देंगे तो फिर कभी हासिल नहीं कर पाएंगे, क्योंकि आप राजा नल या पांडवों जैसे पौराणिक पात्र नहीं हैं जिन की कहानी कोई वेद व्यास लिख रहा हो. आप की कहानी तो आप की मेहनत लिखती है जिस के लेखक आप खुद हैं.


सुधरना कोई मुश्किल काम भी नहीं, बशर्ते, यह बात समझ ली जाए कि किस्मत एक कोरा लफ्ज भर है और मेहनत एक ऐसी हकीकत है जो रोजरोज पलपल आप के पास होती है और आप को चलायमान रखने के साथ जीवन के तमाम सुकून, सुख और मिठास देती है. और भी हैं नुकसान जैसे होली पर खुदबखुद फूहड़ हंसीमजाक की इच्छा होने लगती है वैसे ही दीवाली पर अगर आप के भीतर का जुआरी यानी भाग्य का पुजारी सिर उठाए तो उसे तुरंत कुचल दें वरना वह आप को आर्थिक रूप से कुचल देगा. इस के लिए पहली अहम बात यह समझनी है कि पैसा कभी किस्मत से नहीं आता.

पैसा तो मेहनत से ही आता है. इस के अलावा भी दीवाली पर जुआ खेलने के कई और नुकसान हैं जिन्हें समझेंगे तो पता चलेगा कि आप अकेले खुद के नहीं, बल्कि कइयों के गुनाहगार हैं. उन में से पहले वे लोग हैं जो दीवाली पर जुए की फड़ सजाने के तमाम इंतजाम करते हैं. उन्हें शह देना किसी अपराध से कम नहीं कहा जा सकता. घंटों बैठे प्राकृतिक वेगों को रोकना कई बीमारियों को आमंत्रण देता है और हर कोई जानता है कि जुए के दौरान लोग कई व्यसनों का शिकार हो जाते हैं या जुआ खेलते वक्त इन्हें ज्यादा करते हैं, मसलन बीड़ी, सिगरेट, खैनी और तंबाकू के अलावा शराब का भी सेवन करना. हंसीखुशी, उल्लास और रोशनी का त्योहार अगर अपने परिवार के बजाय जुआरियों के साथ बिताया तो यह अपनों के साथ ज्यादती ही है. दीवाली पर कई फड़ोें पर पुलिस छापे पड़ते हैं और लोग जेल की हवा भी खाते हैं.

क्या आप उन में शामिल होना चाहते हैं? जाहिर है नहीं, क्योंकि कोई अदालत यह नहीं मानेगी कि चूंकि शिव और पार्वती भी जुआ खेलते थे, इसलिए हमें भी छूट दी जाए यानी किस्मत को आजमाने के शौक की सजा आप के पूरे परिवार को भुगतनी पड़ेगी. उस पत्नी की हालत किसी द्रौपदी से कमतर तो नहीं मानी जा सकती जो दीवाली के दूसरे दिन सुबह किसी थाने में खड़ी अपने पति की जमानत के लिए भागादौड़ी कर रही हो. यही बात भाइयों, मातापिता और बच्चों पर भी लागू होती है. जुए की तमाम फड़ों पर क्यों इतनी सहूलियतें दी जाती हैं कि कई जगह पर तंबाकू थूकने के लिए पीकदान तक रखे जाते हैं, सिर्फ इसलिए कि वहां बेईमानी होती है. जो लोग इस काम को अंजाम देते हैं, सुबह आप उन्हीं से घर जाने के लिए पैसे मांगते हैं. इसे भाग्य कहें तो शौक से कहें और फिर यह कतई हर्ज की बात नहीं. लेकिन पेयर, को ‘ट्रेल’ और ‘कच्ची’ को ‘पक्की सीक्वेंस’ बनाने में माहिर लोग घंटों आप की सालभर की बचत हड़प लेते हैं और आप मुंह ताकते रह जाते हैं.


पौराणिक किस्सेकहानियों में यही बताया गया है कि पांडव राजा नल और कृष्ण का बड़ा भाई बलदेव बेईमानी की वजह से हारे थे. दरअसल, जुआ और बेईमानी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. यह वही बचत या कमाई होती है जो आप ने सालभर मेहनत कर व्यापार या नौकरी से बनाई होती है. इसे हासिल करने के लिए कितनी मेहनत आप को करना पड़ी थी, यह एक बार सोच पाएं तो शायद किस्मत नाम की बेवकूफी पर से आप का यकीन उठ जाएगा, यानी गलतफहमी दूर हो जाएगी. अपशगुन बनता शगुन जुए की मानसिकता अब नएनए तरीकों से भी सामने आने लगी है जो और ज्यादा चिंता की बात है कि अब लोग घरों में बैठ कर शगुन करने लगे हैं. इन अस्थायी घरेलू फड़ों पर महिलाएं भी बैठी नजर आने लगी हैं. चूंकि औरतें कमाने लगी हैं, इसलिए उन्हें भी लुटने का हक दिया जाने लगा है. वे विरोध न करें, इसलिए उन्हें भी जुए में शामिल किया जाने लगा है. भोपाल के एक ऐसे ही संपन्न परिवार के मुखिया से जब इस बारे में बात की गई तो वे बड़ी शान से बोले कि इस में हर्ज क्या है अगर सभी लोग, घनिष्ठ दोस्त या रिश्तेदार जुआ खेलें. इस से फायदा यह होता है कि पैसा घर में ही रहता है और शौक या शगुन कुछ भी कह लें, पूरा हो जाता है. इन महाशय को कौन बताए कि वे बच्चों को तो आईएएस, डाक्टर या इंजीनियर बनाना चाहते हैं पर दरअसल जुआरी बनने की कोचिंग दे रहे हैं. अब अगर यही आदर्श नई पीढ़ी को देना है तो उन्हें कुछ बनने के लिए किस्मत के भरोसे छोड़ देना ज्यादा सटीक होगा. इन सज्जन को जब यह बताया गया कि इसी साल 2 छापों में पुलिस ने महिलाओं को भी जुआ खेलते हुए गिरफ्तार किया है, वे भी बड़े घरों की थीं, तो वे सोचने को मजबूर हो गए कि लत तो लत है, और अकसर घर से ही लगती है, जैसे उन्हें लगी थी. घंटों सांस रोक कर एक अनिश्चितता में बैठने की जुआरी मानसिकता में आ रहीं घर की लक्ष्मियों को जुआरिनें कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं.


यह अगर आधुनिकता है तो जल्द ही वे थाने व हवालात में नजर आएंगी. इसलिए इस मानसिकता, शौक या लत से बचें और अपनी मेहनत की खुद इज्जत करें. ऐसा करेंगे तो आप कई झंझटों से बच जाएंगे. इस दीवाली प्रण कर लें कि अपनी किस्मत मेहनत से बनाएंगे, जुआ खेल कर उसे बिगाड़ेंगे नहीं. द्

Source - Sarita